पाषाण युग (Stone Age)
पाषाण का अर्थ पत्थर होता है। मानव का पत्थरों पर आश्रित रहने के कारण इस काल को हम पाषाण काल कहते है। पाषाण काल को हम तीन भागों में बांटकर अध्ययन करते हैं –
1. पुरा पाषाण काल
2. मध्य पाषाण काल
3. नव पाषाण काल
पुरा पाषाण काल (Paleolithic Age)
यूनानी भाषा में Palaios प्राचीन एवं Lithos पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर Paleolithic Age (पाषाणकाल) शब्द बना । यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है।अभी तक भारत में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण। प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे।
महाराष्ट्र के 'बोरी' नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस पृथ्वी पर 'मनुष्य' की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है। गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था।
खाद्य संग्रहण - आदि मानव कई तरीकों से अपना भोजन जुटाते थे; जैसे संग्रहण, शिकार, मछली पकड़ना | संग्रहण की क्रिया में पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों; जैसे बीज, गुठलियाँ, बेर, फल, एवं कंदमूल इकठ्ठा करना आदि |
वह जानवरों का शिकार करने, माँस को काटने, जड़ें खोदने आदि के लिए पत्थरों के औजारों का प्रयोग करता था | स्वयं को शीत तथा वर्षा से बचाने के लिए आदिमानव जानवरों की खाल या वृक्षों की छाल पहनता था | मौसमी प्रकोपों तथा जंगली जानवरों से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए वह गुफाओं या घने वृक्षों की शाखाओं पर रहता था |
उपकरण एवं अस्त्र-शस्त्र - जंगली जानवरों की तरह नुकीले दाँत, पंजे तथा सींग न होने के कारण आदिमानव उनकी तुलना में कमजोर था | अतः उसने शत्रुओं से अपनी रक्षा करने तथा भोजन प्राप्त करने के लिए उपकरण (औजार) तथा अस्त्र-शस्त्र (हथियार) बनाना तथा समूह में रहना प्रारम्भ किया |
अस्त्र-शस्त्र तथा औजार बनाने में नुकीली लकड़ियों, वृक्षों की टहनियों तथा पत्थरों जैसे प्राकृतिक साधनो का प्रयोग करता था | इस काल के उपकरणों में कोर तथा फलक पर बने हस्त-कुठार, गंडासा तथा खुरचनी प्रमुख हैं | हस्त कुठार मुट्ठी में पकड़कर किसी वस्तु को काटने या कुचलने के काम में लिया जाता था |
अग्नि की खोज - पुरा पाषाण काल के अंत में अग्नि की खोज से आदिमानव के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए | वह अग्नि का प्रयोग स्वयं को गर्म रखने, अँधेरी गुफाओं में प्रकाश करने, सोते समय जंगली जानवरो को डराने तथा भोजन (मांस) को भूनने के लिए करने लगा |
पुरा पाषाणकालीन कला - आदिमानव गुफाओं में रहता था | खाली समय में उसने गुफा की छतों तथा दीवारों पर कटी-फटी रेखाओं के रूप में बेढंगे चित्र बनाना प्रारम्भ कर दिया | उसने जंगली जानवरों का शिकार करते हुए चित्र बनाये | ऐसे गुफा चित्र भारत में भोपाल (मध्य प्रदेश) के निकट भीमबेटका की गुफाओं में मिलते हैं | कला के ये नमूने आदिमानव के रीती-रिवाजों तथा सौन्दर्य बोध का भी ज्ञान करते हैं |
धार्मिक विश्वास - आदिमानव का जीवन सरल नहीं था | वह सदैव मौसम व प्राकृतिक प्रकोपों से घिरा रहता था तथा रोगों व् महामारियों से डरता था | उसका विश्वास था की प्रकृति की प्रत्येक वस्तु (अच्छी व् बुरी) में आत्मा का निवास होता है | भयवश वह इन आत्माओं को प्रसन्न करने के लिए प्रकृति की पूजा करता था | पुरा पाषाण काल में आदिमानव के धार्मिक विश्वासों को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा अंकित किया जा सकता है -
- आदिमानव का जादुई शक्तियों में विश्वास था |
- आदिमानव का विश्वास था की बिजली चमकना तथा बादलों का गरजना दैवी क्रोध प्रकट करते हैं ; अतः वह इनसे डरता था |
- आदिमानव का पुनर्जन्म में विश्वास था तथा वह मृतकों के साथ उनके उपकरणों तथा भोज्य पदार्थो को भी दफनाता था |
1- निम्न पुरापाषाण काल (हस्तकुठार Hand-axe और विदारणी Cleaver उद्योग)
2- मध्य पुरापाषाण काल (शल्क (फ़्लॅक्स) से बने औज़ार)
3- उच्च पुरापाषाण काल (शल्कों और फ़लकों (ब्लेड) पर बने औजार)
मध्य पाषाण काल (Mezolithic Age)
कुछ विद्वानों के अनुसार मध्य पाषाण काल Mezolithic Age का कोई अस्तित्व नहीं है और पुरा-पाषाणकाल के बाद ही नव पाषाणकाल का आरम्भ हुआ था, किन्तु खुदाई और आधुनिक शोध कार्यों द्वारा ऐसी सामग्री व् अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके आधार पर पुरा पाषाण के बाद एक ऐसे युग की कहानी प्रकाश में आई है, जिसे 'मध्य पाषाणकाल' नाम दिया गया |
मध्य पाषाण की अवधि ५० हज़ार वर्ष पूर्व से १२ या १५ हज़ार वर्ष पूर्व तक मानी जाती है | इस काल के मानव के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है | इस काल के हथियार व् औज़ार तथा अन्य सामग्री ब्रह्मगिरि (मैसूर), सरायकलां (बिहार), उचाली (पंजाब), अखज (दक्षिण भारत) आदि स्थानों से भी प्राप्त हुई है |
उपकरण एवं अस्त्र-शस्त्र - मध्य पाषाणकाल के उपकरण अत्यंत छोटे हैं | इन्हे 'लघु पाषाण उपकरण' कहते हैं | इनका उपयोग संयुक्त उपकरण के रूप में किया जाता था | इन उपकरणों का। प्रयोग लकड़ी या सींग की मूठ लगाकर किया जाता था |
रहन-सहन एवं आहार - पुरा पाषाणकालीन आखेट एवं कंदमूल-फल संचय करने की प्रक्रिया इस काल में भी आहार का प्रमुख स्त्रोत रही | इसके अतिरिक्त कुछ छेत्रों में उगने वाले जंगली अनाज के दानों को इकठ्ठा कर उन्हें पीसकर खाने का प्रचलन हो गया | इसके कुछ प्रमाण फिलिस्तीन में मिले हैं |
कन्दराओं, शिलाश्रयों तथा नदी के अनुभागों में रहने के अलावा मानव शीत से बचाव के लिए जमीन में गड्ढे खोदकर भी रहने लगा | भारत के विन्ध्य छेत्र में स्थित चोपनी माण्डों एवं राजस्थान के बागोर से बाँस-बल्ली और घास-फूस के छप्पर से तैयार झोपड़ों के प्रमाण मिले हैं |
शवाधान - भारत के सन्दर्भ में मध्य पाषाणकाल का सर्वाधिक महत्तव इस कारण है कि इसी काल में सर्वप्रथम मानव कंकाल विधिवत रूप से छप्पर से दफ़नाए हुए मिलते हैं | ये भारत में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में प्राप्त हुए हैं |
उपकरण एवं अस्त्र-शस्त्र - मध्य पाषाणकाल के उपकरण अत्यंत छोटे हैं | इन्हे 'लघु पाषाण उपकरण' कहते हैं | इनका उपयोग संयुक्त उपकरण के रूप में किया जाता था | इन उपकरणों का। प्रयोग लकड़ी या सींग की मूठ लगाकर किया जाता था |
रहन-सहन एवं आहार - पुरा पाषाणकालीन आखेट एवं कंदमूल-फल संचय करने की प्रक्रिया इस काल में भी आहार का प्रमुख स्त्रोत रही | इसके अतिरिक्त कुछ छेत्रों में उगने वाले जंगली अनाज के दानों को इकठ्ठा कर उन्हें पीसकर खाने का प्रचलन हो गया | इसके कुछ प्रमाण फिलिस्तीन में मिले हैं |
कन्दराओं, शिलाश्रयों तथा नदी के अनुभागों में रहने के अलावा मानव शीत से बचाव के लिए जमीन में गड्ढे खोदकर भी रहने लगा | भारत के विन्ध्य छेत्र में स्थित चोपनी माण्डों एवं राजस्थान के बागोर से बाँस-बल्ली और घास-फूस के छप्पर से तैयार झोपड़ों के प्रमाण मिले हैं |
शवाधान - भारत के सन्दर्भ में मध्य पाषाणकाल का सर्वाधिक महत्तव इस कारण है कि इसी काल में सर्वप्रथम मानव कंकाल विधिवत रूप से छप्पर से दफ़नाए हुए मिलते हैं | ये भारत में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में प्राप्त हुए हैं |
नवपाषाणकाल
मानव सभ्यता के विकास में नव पाषाण काल का महत्वपूर्ण स्थान है | इस काल में मानव आखेट और संचय की अर्थव्यवस्था से आगे बढ़कर अन्न उत्पादक और पशुपालक बन गया था |
पशुचारण (पशुपालन ) -नव पाषाणकाल में मानव ने सर्वप्रथम कुत्ते को पलना प्रारम्भ किया | धीरे -धीरे वह भेड, बकरी, गाय आदि पशुओं को पालकर उनका दूध और मांस प्राप्त करने लगा | कुछ समय पश्चात् उसने सवारी तथा माल ढोने के लिए घोड़ों, खच्चरों, ऊँटों आदि को पलना प्रारम्भ कर दिया |
कृषि का प्रारम्भ - मानव द्वारा कृषि कार्य करना नव पाषाणकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी | विद्वानों का अनुमान है कि इस काल कृषि की खोज सम्भवतया किसी स्त्री ने की होगी | स्त्री ने किसी दिन कंदमूल जमा करते समय पक्षियों को अनाज के दाने चुगते देखा होगा और उसने अनुभव किया होगा की हम भी पक्षियों के समान इन दानों को खाकर अपना पेट भर सकते हैं | इसके बाद मनुष्य जंगली दानों का संग्रह करने लगा होगा और अचानक किसी दिन कुछ दाने नमी पीकर पौधों के रूप में उग आये होंगे, जिन्हें देखकर मानव के मस्तिष्क में कृषि करने का विचार जाग्रत हुआ होगा |
इस प्रकार इस युग की प्रमुख विशेषता कृषि कार्य का आरम्भ होना था | कृषि के लिए मनुष्य ने कुदाली तथा हल का आविष्कार किया, रहने के लिए झोपड़ियाँ बनाईं और पशुओं के झुंडों का पालना प्रारम्भ कर दिया |
नव पाषाणकाल की सभ्यता का विकास भारत के अनेक प्रदेशों में हुआ | बुर्जहोम (कश्मीर), सिंधु प्रदेश , उत्तर भारत ( मिर्जापुर, बाँदा, इलाहाबाद), बंगाल, बिहार (चिराण्ड, छपरा), असम, रामगढ़ व होशंगाबाद (मध्य प्रदेश), ब्रह्मगिरि (मैसूर), बेल्लारी, अर्काट (दक्षिण भारत) आदि स्थानों पर नव पाषाणकालीन मानव के औजार व हथियार तथा दैनिक उपयोग की बहुत-सी वस्तुएँ मिली हैं | आज भी भारत के दुर्गम पहाड़ी छेत्रों में भील, सन्थाल, नागा, मिजो, गौंड, कोल, खासी आदि आदिम जनजातियाँ निवास करती हैं | इनका रहन-सहन व जीवन आज भी बहुत पिछड़ा हुआ है |
पहिये का आविष्कार- पहिये का आविष्कार नव पाषाणकाल की ही नहीं वरन मानव सभ्यता के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि पहिये के आभाव में तो आधुनिक सभ्यता की कल्पना भी असंभव है | इस युग में मनुष्य पहिये की सहायता से रथ, गाड़ी और कुम्हार के चाक द्वारा बर्तन आदि बनाने लगा था | पहिये की सहायता से ही उसने कताई व बुनाई कला में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी और निरन्तर उन्नति करके सभ्यता के शिखर पर चढ़ने लगा था |
उपकरण एवं अस्त्र-शास्त्र - इस युग में मानव छोटे, हल्के , सुडोल, नुकीले, तेज धारदार तथा पॉलिशदार औजार व हथियार बनाने लगा था | चाक़ू, छुरी, हथौड़े में लकड़ी तथा हड्डी के हत्थे (हैंडिल) लगाए जाने लगे थे | इस काल में आदिमानव ने लकड़ी के हत्थे की कुल्हाड़ी, हँसिया, संड़सी और तीरकमान बनाना तथा इनका उपयोग करना सीख लिया था | इस युग में मनुष्य ने मछलियों को पकड़ने के लिए काँटे बनाना शुरू कर दिया था |
मृदभाण्डों का उपयोग - नव पाषाणकाल के प्रारम्भ में मानव फलों तथा सूखी वस्तुओं का भण्डारण करने के लिये तिनकों एवं टहनियों से टोकरियाँ बनाता था | इन टोकरियों पर मिटटी लेपकर, सुखाकर द्रव पदार्थों को रखना संभव हुआ | कुम्हार के चाक के अविष्कार से मिटटी के बर्तन बनाना सरल हो गया | दैनिक अवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न प्रकार के बर्तन बनाने लगा | बाद में इन बर्तनों को आग में पकाकर मजबूत किआ गया |
धार्मिक विश्वास -नव पाषाणकाल में मनुष्य का धार्मिक जीवन विकसित होने लगा था | प्रकृति की उपासना, जादू-टोनों में विश्वास, मानव व पशु बलि, मृतक के साथ अनेक वस्तुओं को दफनाना, समाधियों ( महापाषाण) का बनना आदि उसके धार्मिक जीवन के प्रमुख अंग थे | इस काल में मानव पृथ्वी, जल तथा सूर्य की पूजा करने लगा था |
कलाओं का विकास - नव पाषाणकाल में चित्रकला, मूर्तिकला और संगीतकला का विकास भी हुआ | इस युग में मानव स्त्री व् पुरुषों के चित्र भी बनाने लगा था | इस काल में मनुष्य तथा पशुओं के अतिरिक्त देवी-देवताओं के चित्र भी बनाये जाने लगे थे |
वस्त्र - पूरा पाषाणकाल में मानव शरीर ढकने के लिए पशुओं के चमड़ों, वृक्षों की छालों और पत्तों का प्रयोग करता था | किन्तु नवपाषाणकालीन मनुष्य ने सर्वप्रथम पौधों के रेशों एवं ऊन के धागों से वस्त्र निर्माण करना प्रारम्भ किया | परन्तु कपडा तैयार करने से पहले कातने एवं बुनने की दो प्रक्रियाओं का आविष्कार तथा दोनों का एक साथ प्रयोग करना आवश्यक था | पश्चिम एशिया की नव पाषाणकालीन बस्तियों से प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है की तकली, तकुए और करघे की सहायता से ऊन, सन तथा कपास के धागों से वस्त्र तैयार किये जेते थे | इन पेचीदा मशीनों का आविष्कार मानव बुद्धि की महान सफलताएँ हैं |
वस्त्र - पूरा पाषाणकाल में मानव शरीर ढकने के लिए पशुओं के चमड़ों, वृक्षों की छालों और पत्तों का प्रयोग करता था | किन्तु नवपाषाणकालीन मनुष्य ने सर्वप्रथम पौधों के रेशों एवं ऊन के धागों से वस्त्र निर्माण करना प्रारम्भ किया | परन्तु कपडा तैयार करने से पहले कातने एवं बुनने की दो प्रक्रियाओं का आविष्कार तथा दोनों का एक साथ प्रयोग करना आवश्यक था | पश्चिम एशिया की नव पाषाणकालीन बस्तियों से प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है की तकली, तकुए और करघे की सहायता से ऊन, सन तथा कपास के धागों से वस्त्र तैयार किये जेते थे | इन पेचीदा मशीनों का आविष्कार मानव बुद्धि की महान सफलताएँ हैं |
स्थायी एवं सामुदायिक जीवन का विकास
नव पाषाणकाल में कृषि के आविष्कार के
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मेहरगढ़ संस्कृति
फसल- इस स्थान पर लोग गेहूँ, जौं एवं खजूर पैदा करते थे और भेड़-बकरियाँ तथा मवेशी पालते थे।
निवास- यहाँ के लोग कच्चे मकानों में रहते थे जो मिट्टी के बने होते थे।
कालान्तर में यहाँ मेहरगढ़ के निवासियों ने एक उपनगर बसाया था। वे पत्थरों की कई प्रकार की मालाएं बनाते थे। वे एक कीमती पत्थर ‘लाजवर्त’ का प्रयोग करते थे जो कि मध्य एशिया में पाया जाता है। अनेक मोहरों एवं ठप्पों, मिट्टी के बर्तनों के डिजाइनों, मिट्टी की बनी मूर्तियां, ताँबे और पत्थर की वस्तुओं से पता चलता है कि यहाँ के लोगों का ईरान के निकटवर्ती नगरों के साथ घनिष्ठ संबंध थे।
जेरिको
जेरिको फिलिस्तीन में स्थित एक शहर है जिसे ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार दुनिया का सबसे प्राचीन शहर होने का गौरव प्राप्त है यह करीब 11000 वर्ष पुराना है तब यहाँ लोगों ने रहना शुरू किया था और तब से यह शहर अब तक बसा हुआ है। पुरातत्वविदों ने जेरिको में 20 से अधिक बस्तियों के अवशेषों का पता लगाया है, जिनमें से सबसे पहले अवशेष 11 हजार वर्ष (9000 ई0) पूर्व के मिले हैं। वर्तमान में जेरिको, जार्डन नदी के किनारे स्थित है।
कांस्य युग (Bronze Age)
कांस्य युग उस काल को कहते हैं जिसमें मनुष्य ने तांबे और रांगे के मिश्र धातु का उपयोग किया, यह युग ताम्र युग और लोह युग के बीच का था, कांस्य युग की प्रमुख विशेषता यह थी कि मनुष्य ने अनेकों शहरी सभ्यताओं में बसना शुरू कर दिया था, इस युग की दूसरी खास बात यह रही कि सभी पौराणिक सभ्यताओं को लिपि का ज्ञान हो गया था, दुनिया भर में कांस्य युग की बहुत सारी सभ्यताएं मिलीं जिनमें मेसोपोटामिया की सुमेरियन, भारत की मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा आदि प्रमुख हैं।
भारत का कांस्य युग
20वीं शताब्दी के आरंभ में पुरातत्ववेत्ताओं का मानना था की वैदिक सभ्यता ही भारत की सबसे पुरानी सभ्यता है। जब 1921 में दयाराम सहानी के नेतृत्व में हड़प्पा की खुदाई की गई तो पता चला कि वैदिक नहीं बल्कि सिंधु घाटी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता थी, जिसका सबसे आधुनिक शहर हडप्पा उस जमाने की उत्कृष्ट कला की महत्वपूर्ण नमूना है। कांस्य युग की सबसे व्यापक सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता की व्यापकता के प्रमाण मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा की खुदाई से मिले हैं।
पुरातत्वविदों ने इस सभ्यता को घाटी सभ्यता का नाम दिया क्योंकि सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों से काफी दूर मिले जैसे कि - रोपड, लोथल, कालीबंगा, रंगपुर, वनमाली, आदि को पुरातत्वविदों ने इसे हड़प्पा सभ्यता का मुख्य केन्द्र माना जाता है।
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